कहानी संग्रह >> कहानी की तलाश में कहानी की तलाश मेंअलका सरावगी
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लेखिका को सुंदरता और परिपूर्ण जीवन की तलाश है और उसी की तलाश में वह कहानी पा लेती है-
kahani ki talas Mein
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अलका सरावगी की कहानी-यात्रा कोई आयोजित भ्रमण नहीं है, यह जानने और जताने की है कि कैसे कोई कहानी के संसार की यात्रा शुरू कर देता है तो उसे पग-पग पर कहानियाँ मिलती रहती हैं। हाँ, इस मिलने में तलाशना जुड़ा है, मिलना सहज संयोग नहीं। लेखिका को सुंदरता और परिपूर्ण जीवन की तलाश है और उसी की तलाश में वह कहानी पा लेती है- इसमें वह ऐसी सृजनात्मकता का वरण करती है जो सहज है पर जिसमें जटिलताओं का नकार नहीं।
संग्रह की दो कहानियां ‘कहानी की तलाश में’ और ‘हर शै बदलती है’ समकालीन हिन्दी कहानी के ढर्रे से कुछ अलग हैं, पर वे जैनेन्द्र कुमार और रघुवीर सहाय जैसे पूर्ववर्ती लेखकों की कहानियों की भी याद दिलाती हैं। इन कहानियों को जीवन की कहानियाँ कहने को मन करता है- रोजमर्रा की जिंदगी का मतलब एक पिटी-पिटाई और ढर्रे की जिंदगी नहीं होता, आखिर हर दिन एक नया दिन भी होता है। यह एहसास कहानियाँ करवाती हैं जो निश्चय ही आज एक अत्यंत विरल अनुभव है।
कहानियों में कुछ चरित्र-प्रधान हैं लेकिन उनका मर्म किसी चरित्र के मनोवैज्ञानिक उद्घाटन के बजाय ‘आधुनिकतावादी’ जीवन की संवेदनहीनता और विसंगतियों को उजागर करने में ज्यादा प्रकट है। ऐसी कहानियों में ‘आपकी हँसी’, ‘खिजाब’, ‘महँगी किताब’, ‘संभ्रम’ की याद आती है।
ये कहानियाँ हिन्दी कहानी की अमित संभावनाओं को प्रकट करती हैं और यह कोई कम बड़ी बात नहीं।
हकीकत तो यह है कि हम सब आम लोग हैं और यह बात सबसे ज्यादा तब पता चलती है जब हम अपनी तस्वीर देखकर निराश होते हैं। हम अपनी कल्पना में हमेशा अपनी तस्वीर से अधिक सुन्दर होते हैं। पर इन चहकती लड़कियों को देख मेरी उद्विग्नता और क्यों बढ़ रही है ? वकील चाचा क्या अपनी लड़की के किसी पैसेवाले से अन्तर्जातीय विवाह करने से खुश थे ? सपाट चेहरेवाली अविकसित लड़की टिफिन बन्द कर रही है। मैं एक लम्बी साँस लेकर खिड़की से बाहर देखने लगती हूँ और आपको यह बताना चाहती हूँ कि मैं इस भीड़भाड़वाली शोर से फटती कॉलेज स्ट्रीट में हरे-हरे नए पत्तों से लदे एक पेड़ पर एक नीली चिड़िया देखी है। आपको मुझसे शिकायत हो सकती है कि मैं क्यों इस तरह की फालतू बातों से आपका और अपना समय नष्ट कर रही हूँ, पर दरअसल पिछले दो एक साल से एक गहरी मानसिक उलझन के समय मुझे इन पेड़ों और चिड़ियों ने ही सँभाला है। उस समय किसी आदमी से सहानुभूति और समझ की उम्मीद मैं नहीं कर सकती थी। यकायक न जाने कहाँ से सारे पेड़ मुझे बचाने आ गए, जिनकी तरफ जीवन के इतने सालों में कभी मैंने देखा भी नहीं था या देखकर भी नहीं देखा था। लीजिए, अब आप मेरे बारे में क्या उलटे-सुलटे अन्दाज लगाने बैठ गए हैं ?
संग्रह की दो कहानियां ‘कहानी की तलाश में’ और ‘हर शै बदलती है’ समकालीन हिन्दी कहानी के ढर्रे से कुछ अलग हैं, पर वे जैनेन्द्र कुमार और रघुवीर सहाय जैसे पूर्ववर्ती लेखकों की कहानियों की भी याद दिलाती हैं। इन कहानियों को जीवन की कहानियाँ कहने को मन करता है- रोजमर्रा की जिंदगी का मतलब एक पिटी-पिटाई और ढर्रे की जिंदगी नहीं होता, आखिर हर दिन एक नया दिन भी होता है। यह एहसास कहानियाँ करवाती हैं जो निश्चय ही आज एक अत्यंत विरल अनुभव है।
कहानियों में कुछ चरित्र-प्रधान हैं लेकिन उनका मर्म किसी चरित्र के मनोवैज्ञानिक उद्घाटन के बजाय ‘आधुनिकतावादी’ जीवन की संवेदनहीनता और विसंगतियों को उजागर करने में ज्यादा प्रकट है। ऐसी कहानियों में ‘आपकी हँसी’, ‘खिजाब’, ‘महँगी किताब’, ‘संभ्रम’ की याद आती है।
ये कहानियाँ हिन्दी कहानी की अमित संभावनाओं को प्रकट करती हैं और यह कोई कम बड़ी बात नहीं।
हकीकत तो यह है कि हम सब आम लोग हैं और यह बात सबसे ज्यादा तब पता चलती है जब हम अपनी तस्वीर देखकर निराश होते हैं। हम अपनी कल्पना में हमेशा अपनी तस्वीर से अधिक सुन्दर होते हैं। पर इन चहकती लड़कियों को देख मेरी उद्विग्नता और क्यों बढ़ रही है ? वकील चाचा क्या अपनी लड़की के किसी पैसेवाले से अन्तर्जातीय विवाह करने से खुश थे ? सपाट चेहरेवाली अविकसित लड़की टिफिन बन्द कर रही है। मैं एक लम्बी साँस लेकर खिड़की से बाहर देखने लगती हूँ और आपको यह बताना चाहती हूँ कि मैं इस भीड़भाड़वाली शोर से फटती कॉलेज स्ट्रीट में हरे-हरे नए पत्तों से लदे एक पेड़ पर एक नीली चिड़िया देखी है। आपको मुझसे शिकायत हो सकती है कि मैं क्यों इस तरह की फालतू बातों से आपका और अपना समय नष्ट कर रही हूँ, पर दरअसल पिछले दो एक साल से एक गहरी मानसिक उलझन के समय मुझे इन पेड़ों और चिड़ियों ने ही सँभाला है। उस समय किसी आदमी से सहानुभूति और समझ की उम्मीद मैं नहीं कर सकती थी। यकायक न जाने कहाँ से सारे पेड़ मुझे बचाने आ गए, जिनकी तरफ जीवन के इतने सालों में कभी मैंने देखा भी नहीं था या देखकर भी नहीं देखा था। लीजिए, अब आप मेरे बारे में क्या उलटे-सुलटे अन्दाज लगाने बैठ गए हैं ?
-इसी पुस्तक से
अपनी बात
दो साल पहले तक मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं कहानियाँ लिख सकती हूँ। तब तक मेरे दिमाग में अपनी जो तस्वीर थी, कुछ-कुछ पत्रकारिता के माध्यम से अन्याय से लड़ने जैसी थी। इस दिशा में एकाध चेष्टाएँ की भी थीं। पर अचानक एक यात्रा के दौरान एक अनजान अजीब-सा व्यक्ति मिला और उसे समझने और जानने की इच्छा कुछ इस तरह दिमाग पर हावी हो गई कि मैंने ‘आपकी हँसी’ लिख डाली। अब मुझे लगता है कि यह छटपटाहट आदमी और आदमी के बीच असमानता के कारण सोए हुए एक अस्तित्वहीन आदमी की अस्पष्ट पीड़ा के प्रति ऐसी जिज्ञासा थी जो कहीं गहरे में खुद अपने जीवन के बारे में सोचने को विवश करती थी। ऐसे अन्याय हम अपनी जिन्दगी में प्रायः करते और देखते झेलते रहते हैं। इसे लिखते हुए ही अचानक समझ में आया कि साहित्य की जीवन में क्या जरूरत होती है और जो लोग सुविधा साधन की कमी के कारण या सुख इच्छाहीनता के कारण साहित्य से वंचित हो गए हैं; वे किस तरह चेतना के स्तर पर संवेदनहीन या निःस्पन्द जीवन जीने को अभिशप्त हैं। यह भी दिख पड़ा कि ऐसे लोगों का समूह ही यदि समाज है, तो उससे अन्याय को कभी मिटाया भी नहीं जा सकता और आदमी को साहित्य के सिवाय कोई बचा नहीं सकता।
पहली रचना की संयोगवश हुई चर्चा के कारण उत्पन्न एक तरह की स्नावयिक ऊर्जा में आगे की कहानियाँ लिखी गईं जो मूलतः किसी एक चरित्र के ईर्द-गिर्द बुनी जाकर प्रेम, स्वतन्त्रता, अस्मिता जैसे शब्दों के अर्थ तलाशती थी खिजाब सम्भ्रम आदि कहानियों में भी किसी-न-किसी स्तर पर उस अन्याय का विरोध था, जो हम अपने को सुरक्षित रखते हुए प्रेम और स्वतन्त्रता जैसे शब्दों के साथ करते हैं। बात सीधी सी है-यदि स्वतन्त्रता और प्रेम हमारे लिए सचमुच मूल्य हैं, जो हमारी कोशिश होगी कि दूसरों को भी हम इन्हें दें। पर होता अक्सर यह है कि हमारे लिए ये मूल्य नहीं होते, बल्कि सिर्फ अपने लिए बटोरी गई सुविधा मात्र होते हैं। ‘ख़िजाब़’ की दमयन्ती जी सम्बन्धों की सुरक्षा को त्याग कर स्वतन्त्रता का चुनाव करती हैं, पर यही स्वतन्त्रता वे अपनी बेटी तक को नहीं दे पातीं। दरअसल यह एक आत्मकेन्द्रित व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। यही सलूक ‘सम्भ्रम’ की कनक मौसी ‘प्रेम’ के साथ करती हैं।
‘स्वतन्त्रता’ शब्द बचपन से ही मुझे बहुत लुभाता रहा है और तभी से आसमान और चिड़ियाँ मुझे जैसे इस शब्द का अर्थ देते रहे हैं। इसका कारण शायद एक बन्द समाज में स्त्री होने की विवशता और उससे जुड़ा अपमान ही रहा होगा। ‘एक व्रत की कथा’ नए और पुराने सन्दर्भों में इन्हीं सवालों को उठाती है। किन्तु जैसा कि आप ‘बीज’ तथा अन्य कहानियों में महसूस कर पाएँगे, मुझे अपनी शक्ति को जानने के लिए पुरुष विरोधी होने की कभी जरूरत नहीं हुई। बल्कि मैंने यह जाना कि एक स्वस्थ, विकसित संवेदनावाले समाज में ही स्त्री पूरे आत्मविश्वास, स्वतन्त्रता और सम्मान के साथ जी सकती है। इसलिए जरूरत उस समाज को ही बनाने की है। लोग यदि ताकत की भाषा बोलेंगे, तो स्त्री सबसे पहले असुरक्षित होगी। मुझे यह भी लगता है कि स्त्री का माँ होना उसकी जैविक और भावनात्मक जरूरत है-उसकी दूसरी भूमिकाएँ इस सत्य को स्वीकार करके ही तय करनी होंगी। शायद एक स्वस्थ, करुणावान समाज में अधिकारों के बँटवारे का झगड़ा भी नहीं रहेगा-उसमें स्त्री दलित और अल्पसंख्यक अपने को इस तरह चारों ओर से घिरा हुआ नहीं महसूस करेंगे। मैंने प्रायः देखा है कि अहन्मयता, स्वार्थपरता और असहिष्णुता जब जीवन का तर्क बन जाते हैं, तो वे सारे कमजोरों पर ही जोर-आजमायश करते हैं।
दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है-मानव का मन और यही साहित्य के सृजन और पठन के आनन्द का आधार भी है। मुझे लगने लगा है कि व्यष्टि और समष्टि के द्वन्द्व को लेकर की जानेवाली तमाम बहसें बेकार हैं-बिना ‘व्यष्टिवादी’ हुई कोई भला समष्टि को क्या समझेगा ? यदि एक व्यक्ति का आर्त्त अनुभव, उसका कष्ट उसका पल पल उद्वेलन, उसकी असहाय छटपटाहट-कुल मिलाकर उसकी साधाणता ही साहित्य में नहीं आती, तो हम किस साधारण आदमी के साहित्य की बात करते हैं ? आज की दुनिया में साहित्य के कुछ लोगों तक ही सिमटते जाने का कही यहीं तो कारण नहीं ? कहीं विराट समस्याओं से जूझने की पात्रता की तलाश के चक्कर में हमने साधारण लोगों की बड़ी जनसंख्या को साहित्य में पात्र बनने से निष्कासित तो नहीं कर दिया है ? शायद हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस बात पर फिर से विचार करना चाहिए।
‘हर शै बदलती है’ को लिखना मेरे लिए विशुद्ध आनन्द का अनुभव था। मेरे खयाल से यह हर व्यक्ति का अनुभव है कि वह ऐसा सोचता है कि आज से, अभी इसी क्षण से वह जीवन को एकदम नए सिरे से, फिर से जीएगा। यही जिजीविषा है-जीवन के प्रति आस्था-जो सारे कष्टों के बावजूद आत्महत्या से बचाए रखती है। जिजीविषा इसी को परिभाषित करने की, शब्द देने की कोशिश में यह कहानी लिखी गई है।
अन्त में अपनी कहानियों के बारे में एक और बात। मैं मानती हूँ कि कहानी का मूल धर्म बहुत कुछ बदलने के बावजूद आज भी किस्सागोई ही बना हुआ है। मेरी कहानियों में वे प्रायः मिलेगी। मेरी रेखाएँ काफी कुछ यथार्थपरक हैं। इस दृष्टि से वे काफी पुरानी कहानियाँ भी हैं। मैं खुद यहाँ से उड़ान भर पाने की प्रतीक्षा में हूँ। जीवन बहुत सुन्दर और सम्भावनापूर्ण है और आखिर ‘हर शै बदलती है’
पहली रचना की संयोगवश हुई चर्चा के कारण उत्पन्न एक तरह की स्नावयिक ऊर्जा में आगे की कहानियाँ लिखी गईं जो मूलतः किसी एक चरित्र के ईर्द-गिर्द बुनी जाकर प्रेम, स्वतन्त्रता, अस्मिता जैसे शब्दों के अर्थ तलाशती थी खिजाब सम्भ्रम आदि कहानियों में भी किसी-न-किसी स्तर पर उस अन्याय का विरोध था, जो हम अपने को सुरक्षित रखते हुए प्रेम और स्वतन्त्रता जैसे शब्दों के साथ करते हैं। बात सीधी सी है-यदि स्वतन्त्रता और प्रेम हमारे लिए सचमुच मूल्य हैं, जो हमारी कोशिश होगी कि दूसरों को भी हम इन्हें दें। पर होता अक्सर यह है कि हमारे लिए ये मूल्य नहीं होते, बल्कि सिर्फ अपने लिए बटोरी गई सुविधा मात्र होते हैं। ‘ख़िजाब़’ की दमयन्ती जी सम्बन्धों की सुरक्षा को त्याग कर स्वतन्त्रता का चुनाव करती हैं, पर यही स्वतन्त्रता वे अपनी बेटी तक को नहीं दे पातीं। दरअसल यह एक आत्मकेन्द्रित व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। यही सलूक ‘सम्भ्रम’ की कनक मौसी ‘प्रेम’ के साथ करती हैं।
‘स्वतन्त्रता’ शब्द बचपन से ही मुझे बहुत लुभाता रहा है और तभी से आसमान और चिड़ियाँ मुझे जैसे इस शब्द का अर्थ देते रहे हैं। इसका कारण शायद एक बन्द समाज में स्त्री होने की विवशता और उससे जुड़ा अपमान ही रहा होगा। ‘एक व्रत की कथा’ नए और पुराने सन्दर्भों में इन्हीं सवालों को उठाती है। किन्तु जैसा कि आप ‘बीज’ तथा अन्य कहानियों में महसूस कर पाएँगे, मुझे अपनी शक्ति को जानने के लिए पुरुष विरोधी होने की कभी जरूरत नहीं हुई। बल्कि मैंने यह जाना कि एक स्वस्थ, विकसित संवेदनावाले समाज में ही स्त्री पूरे आत्मविश्वास, स्वतन्त्रता और सम्मान के साथ जी सकती है। इसलिए जरूरत उस समाज को ही बनाने की है। लोग यदि ताकत की भाषा बोलेंगे, तो स्त्री सबसे पहले असुरक्षित होगी। मुझे यह भी लगता है कि स्त्री का माँ होना उसकी जैविक और भावनात्मक जरूरत है-उसकी दूसरी भूमिकाएँ इस सत्य को स्वीकार करके ही तय करनी होंगी। शायद एक स्वस्थ, करुणावान समाज में अधिकारों के बँटवारे का झगड़ा भी नहीं रहेगा-उसमें स्त्री दलित और अल्पसंख्यक अपने को इस तरह चारों ओर से घिरा हुआ नहीं महसूस करेंगे। मैंने प्रायः देखा है कि अहन्मयता, स्वार्थपरता और असहिष्णुता जब जीवन का तर्क बन जाते हैं, तो वे सारे कमजोरों पर ही जोर-आजमायश करते हैं।
दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है-मानव का मन और यही साहित्य के सृजन और पठन के आनन्द का आधार भी है। मुझे लगने लगा है कि व्यष्टि और समष्टि के द्वन्द्व को लेकर की जानेवाली तमाम बहसें बेकार हैं-बिना ‘व्यष्टिवादी’ हुई कोई भला समष्टि को क्या समझेगा ? यदि एक व्यक्ति का आर्त्त अनुभव, उसका कष्ट उसका पल पल उद्वेलन, उसकी असहाय छटपटाहट-कुल मिलाकर उसकी साधाणता ही साहित्य में नहीं आती, तो हम किस साधारण आदमी के साहित्य की बात करते हैं ? आज की दुनिया में साहित्य के कुछ लोगों तक ही सिमटते जाने का कही यहीं तो कारण नहीं ? कहीं विराट समस्याओं से जूझने की पात्रता की तलाश के चक्कर में हमने साधारण लोगों की बड़ी जनसंख्या को साहित्य में पात्र बनने से निष्कासित तो नहीं कर दिया है ? शायद हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस बात पर फिर से विचार करना चाहिए।
‘हर शै बदलती है’ को लिखना मेरे लिए विशुद्ध आनन्द का अनुभव था। मेरे खयाल से यह हर व्यक्ति का अनुभव है कि वह ऐसा सोचता है कि आज से, अभी इसी क्षण से वह जीवन को एकदम नए सिरे से, फिर से जीएगा। यही जिजीविषा है-जीवन के प्रति आस्था-जो सारे कष्टों के बावजूद आत्महत्या से बचाए रखती है। जिजीविषा इसी को परिभाषित करने की, शब्द देने की कोशिश में यह कहानी लिखी गई है।
अन्त में अपनी कहानियों के बारे में एक और बात। मैं मानती हूँ कि कहानी का मूल धर्म बहुत कुछ बदलने के बावजूद आज भी किस्सागोई ही बना हुआ है। मेरी कहानियों में वे प्रायः मिलेगी। मेरी रेखाएँ काफी कुछ यथार्थपरक हैं। इस दृष्टि से वे काफी पुरानी कहानियाँ भी हैं। मैं खुद यहाँ से उड़ान भर पाने की प्रतीक्षा में हूँ। जीवन बहुत सुन्दर और सम्भावनापूर्ण है और आखिर ‘हर शै बदलती है’
अलका सरावगी
कहानी की तलाश में
वह यह रास्ता अक्सर तय करती हुई दिखाई देती है-इसी तरह एक पतली फाइल अपने से सटाकर चलती हुई, गरदन नीचे की ओर झुकाए, बीच-बीच में ऊपर देखती या कभी-कभी रास्ते में मिल जानेवालों को देखती हुई। मैंने सुना है कि वह कहानी लिखती है। उसकी एक कहानी मैंने देखी थी-किसी अखबार में। सोचा था बाद में पढ़ूँगा, पर बाद में वह अखबार मिला ही नहीं। मैं भी उसी के मकान में रहता हूँ-अपने कारोबार से लगभग रिटायरमेंट लिए हुए। हो सकता है कि फुरसत बढ़ जाने की वजह से उसमें मेरी इतनी दिलचस्पी हो गई हो जितनी कि कह सकते हैं-एक कहानी में। सच, मुझे वह खुद एक कहानी लगती है। शायद मेरी उम्र में फुरसत इसलिए भी ली जाती है कि मरने से पहले उन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दे लें जिनको अभी तक देख नहीं पाए थे। अपने स्वभाव के बिल्कुल खिलाफ, अपने से लड़ते हुए मैं उसके पीछे-पीछे जाकर देख आया हूँ कि वह कहाँ जाती है। इस तरह लोगों की जासूसी करने की कभी सोच भी नहीं सकता था-सोचता हूँ कहीं मैं सठियाने तो नहीं लगा हूँ ? ऊपर से मुझे यह डर भी खाए जा रहा था कि मैं वह मुझे इस तरह अपने पीछे लगा हुआ देख लेगी, तो क्या सोचेगी और यदि किसी से कहेगी तो वह क्या सोचेगा।
खैर, मैंने जान लिया है कि वह कहाँ जाती है। वह हमारे मकान के अन्दर की गली को पार करके दाहिने सड़क पर आ जाती है और तीन चार मकानों को पार करके फिर दाहिने एक गली में मुड़ जाती है जो मैं जानता आया हूँ कि एक अन्धी गली है। उस अन्धी गली के सामने से मैं बरसों से प्रायः रोज ही गुजरता रहा हूँ, पर मैंने उस गली पर कभी ध्यान नहीं दिया था। अब सोच रहा हूँ कि अन्धी गली का अर्थ एक ऐसी गली है जिससे आप किसी और गली में नहीं जा सकते, आपको उसी से लौटना होगा। हो सकता है कि उसके बारे में जानने की वजह ही है कि मैं पहली बार अन्धी गली के बारे में इतना सोच रहा हूँ। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि अक्सर हम जिन्दगी में ऐसी अन्धी गलियों में घुसते रहते हैं। कहते हैं कि हर आदमी के अन्दर ही न जाने कितनी कहानियाँ छिपी रहती हैं। क्या पता उसे देखते-देखते मैं भी कोई कहानी ही लिख डालूँ। लेकिन यह अन्धी गलीवाली बात तो बहुत घिसी-पिटी है। इसे लेकर लिखी गई कहानी में क्या नई बात होगी ?
वह किससे मिलने जाती है, मैं यह भी जानना चाहता हूँ। अन्धी गली में घुसते ही वह बहुत हल्की और खुश हो गई-ऐसा मुझे उसे देखकर लगा। उस गली में दोनों तरफ बहुत पुराने-पुराने पेड़ हैं और वह गली गाड़ियों की आवाजाही बहुत कम होने के कारण बहुत शान्त है। मैंने देखा कि वह गली में घुसने के बाद एक दूर चलकर अचानक चौंककर खड़ी हो गई और ऊपर के पेड़ को देखने लगी। उसके साथ मुझे भी रुकना पड़ा और ऊपर देखने से मुझे पेड़ से आती किसी चिड़िया की विचित्र आवाज सुनाई दी, जो अब तक मैंने कभी नहीं सुनी थी। अचानक मुझे एक गिलहरी दिखाई दी, जो पूँछ उठाए यह आवाज कर रही थी। मेरा मन हुआ कि उसे बता दूँ कि यह आवाज गिलहरी की थी, किसी चिड़िया की नहीं। पर तब वह जिस तरह मुस्करा रही थी, उससे मैं समझ गया कि उसे यह बताने की कोई जरूरत नहीं। उस दिन के बाद मैं कई बार इस गली में शाम को घूमने आया हूँ और हर आवाज पर चौंककर मैंने ऊपर देखा है। इसी चक्कर में मैंने एक कठफोड़वा, एक पीली चिड़िया और एक नीली चिड़िया देखी है-बुलबुल, कोयल और तोते मैंने इतने देख लिए हैं कि वे मेरे लिए चील-कौवों की तरह मामूली हो गए हैं और मैं उनका नाम नहीं गिना रहा।
मुझे यदि कोई कहता कि इस भीड़भाड़वाले शहर के इस हल्ले-गुल्ले से भरे इलाके की इस अन्धीगली में इतनी तरह-तरह की चिड़ियाँ दिखती हैं, तो मैं उसे पागल समझता। मेरे एक पुराने दोस्त हैं, जो चिड़ियों पर किताबें पढ़ा करते थे। मैं उन्हें सनकी मानता था। अब सोचता हूँ कि उनसे मिलकर उस पीली चिड़िया का नाम पूँछूँ, जिसका रंग सूरजमुखी के फूल जैसा है और जिसकी बोली अब मैं इतनी अच्छी तरह पहचानने लगा हूँ कि आँख बन्द करके भी बता सकता हूँ कि वह अभी पेड़ पर आई हुई है। कभी-कभी वह मेरे कमरे के पास एक पेड़ पर भी आकर बोलती है। ऐसे मौकों पर मैं चिहुँक पड़ता हूँ और बेतरह चाहता हूँ कि किसी को बताऊँ कि वह कितनी सुन्दर चिड़िया है और आँखें बन्द करके भी उसे पहचान सकता हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि वह भी उस चिड़िया को जानती होगी, पर उसे पूछने के लिए तो उससे बातें करनी होंगी।
मैं बहुत दिन से सोच रहा हूँ कि उससे उसकी कोई कहानी पढ़ने के लिए माँगू लूँ, पर कितनी दिक्कत होती है मुझे किसी नए आदमी से बातें शुरू करने में। और वे भी इस तरह की बातें, जो मैंने आज तक किसी से भी नहीं की है। मैं रिश्तेदारों से और घरवालों से भी बहुत कम बोलता हूँ। फिर भी उनसे बात करना तो जानता हूँ। जिनसे कारोबार है, उनसे भी बातचीत की जा सकती है। पर इस तरह एक लड़की से और वह भी इस तरह की बातों से कैसे बात शुरू की जाए, मुझे समझ में नहीं आता।
कई बार मुझे खीझ सी होती है कि वह खुद ही मुझसे बात क्यों नहीं करती। मैंने देखा है कि वह मकान के दरबान से, लिफ्टमैन से खेलते हुए बच्चों से प्रायः हर परिचित से बातें करती है और जिन्हें नहीं जानती, उन्हें भी बहुत दिलचस्पी से देखती है। मुझे लगता है कि वह जरूर कहानियों की तलाश में है। उसने पहले-पहले तो कई बार मेरी तरफ भी दिलचस्पी से देखा था, पर अब उसकी मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। वैसे इसमें उसकी गलती भी क्या है-मैंने खुद बड़ी-बड़ी मूँछों और चश्मे से अपना चेहरा ढक रखा है। ऊपर से शायद रोब के लिए ही पाइप भी पीता हूँ। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैंने जान बूझकर दुनिया से दूर रहने और दुनिया को दूर रखने के लिए अपने को इस तरह छुपा लिया है। यह भी तो हो सकता है कि मेरे जैसे आदमी इतने ‘‘स्टीरियोटाइप्ड’’ हों कि उसे मुझमें कोई नयापन नजर नहीं आता हो। शायद मेरे जैसा एक चरित्र हिन्दी फिल्मों में बहुत दिखाई देता है। इसलिए उसे मुझमें कोई कहानी नहीं दिखती। सारी जिन्दगी इस बड़े शहर में काटकर अब मुझे लग रहा है कि यदि हम गाँव के लोग होते, तो शायद बातें करना इतना कठिन न होता।
अब मैं अक्सर मेहता जी से खुद चलाकर बातें कर लेता हूँ। पहले-पहले जब वे हमारे मकान में आए थे, तब उनकी मुझसे बतलाने की उत्सुकता से मुझे बहुत कोफ्त होती थी।
मुझे वे निपट गँवार और दूसरों के मामले में दखलन्दाजी करनेवाले हिन्दुस्तानी किस्म के आदमी लगते थे। पार्क में भी सुबह जब वे मुझे मिल जाते, तो मैं इस तरह आँखें जमीन में गड़ाए उनके बगल से निकल जाता था, जैसे कि बहुत गहरे सोच में डूबे होने के कारण मैंने उन्हें देखा ही न हो। मैंने देखा है कि वह मेहता जी से बहुत हँस-हँसकर बातें करती है और एक दिन मेहता जी उसे एक रूमाल में बँधे मौलश्री के फूल दे रहे थे, जो उन्होंने पार्क से बटोरे होंगे। वह बहुत खुश होकर ‘‘थैंक्यू अंकल’’ बार-बार कह रही थी और मेहता जी गद्गद हुए जा रहे थे। मौलश्री के फूल तो मौसम आने तक यूँ ही जमीन पर बिखरे रहते हैं और उनकी खूशबू भी मुझे तो अच्छी नहीं लगती। हो सकता है कि वह कोई कहानी लिख रही हो और इसलिए उसकी मौलश्री में इतनी दिलचस्पी हो। परसों मैंने भी इधर-उधर देखकर कि कोई मुझे देख नहीं रहा है, जमीन से मौलश्री के फूल उठा लिए थे कि पत्नी से पूछूँगा कि उसे इनकी गन्ध कैसी लगती है। पर घर के नजदीक आते-आते मैं इतना परेशान हो गया कि मैंने वे फूल फेंक दिए।
मैं जानता हूँ कि मैं कोई रोमांटिक किस्म का आदमी कहीं से भी नहीं हूँ। मैंने जिन्दगी को बहुत सही ढंग से जीया है और मुझे जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। सबकुछ जैसे होना चाहिए था, वैसा ही है। यहाँ तक कि मैं इतना घबड़ा रहा था कि लड़के को काम सौंपकर खुद रिटायरमैंट ले लिया, तो आखिर वक्त कैसे गुजारूँगा, पर देखिए मुझे तो कोई खालीपन ही नहीं लग रहा। पर थोड़ी सी अजीब सी परेशानी हो रही है। कभी-कभी मुझे लगता है कि पार्क में लगा बादाम का पेड़ मुझसे उन सारे सालों का हिसाब माँग रहा है जब मैं इतना मैं इतना भी नहीं जानता था कि वह बादाम का पेड़ और उसके पत्ते पतझड़ में गिरने से पहले सुर्ख लाल रंग के हो जाते हैं। मैं यह भी चाहता हूँ कि अपने लड़के उस अन्धी गली की चिड़ियों के बारे में और बादाम के लाल पत्तों के बारे में बता दूँ जिससे उसे इतने सालों का घाटा न सहना पड़े। पर मुझे डर है कि वह सोच लेगा कि उसका पिता सठिया गया है। हो सकता है कि वह मुझे डॉक्टर को दिखा लेने की सलाह दे, क्योंकि मैं जानता हूँ कि उसे मैंने अपनी तरह ही बिल्कुल सुलझा हुआ आदमी बनाया है जिसे अच्छी तरह मालूम है कि कौन-कौन सी जानकारियाँ जिन्दगी में भुनाई जा सकती हैं।
उनसे ज्यादा जाननेवालों को शायद वह कमजोर और मूर्ख समझ लेगा। मैं मन-ही-मन कुढ़ता रहता हूँ अपनी पत्नी पर कि वह उस लड़की की तरह हमारे मकान में हर सोमवार को फूल बेचनेवाले से फूल क्यों नहीं खरीदती। पर मुझे याद आ जाता है कि शादी के तुरन्त बाद उसने जूही की माला खरीदकर अपने बालों में लगाने की जिद की थी, तो मैंने उसे यह कहकर रोक दया था कि वह मदरासिन जैसी लगेगी और फूल इतने महँगे हैं और वे तुरन्त मुरझा भी जाते हैं। बस यही सोचकर सन्तोष कर लेता हूँ कि नुकसान की पीड़ा उसे ही कचोटती है, जो उसे नुकसान की तरह जानता है-नहीं तो आप बचे रहते हैं। इसलिए यह दुख मेरा निजी है। इस पर कोई कहानी भी नहीं बन सकती, क्योंकि यह एक सफल व्यक्ति का साधारण सा दुख है। आखिर मेरे पास जिन्दगी से शिकायत की कोई वजह तो नहीं। मेरा दुख मामूली है, जिसे बांग्ला में ‘‘सुखेर कान्ना’’ (रोना) कहते हैं। दुनिया में बड़े-बड़े दुख हैं-उस बच्चे के, जो पार्क के पासवाली चाय की दुकान में अपना बचपन बरतनों के साथ घिस रहा है, उस रिक्शेवाले के जो मेरे पोते को अपनी फूली हुई नाड़ियों से रिक्शे के साथ खींचते हुए रोज स्कूल पहुँचाता है, शायद उस लिफ्टमैन के भी, जो हमारे मकान में घंटों उस काले लोहे के दरवाजे को खोलता बन्द करता रहता है। और मुझे सन्देह है कि इसलिए वह लड़की मुझे बात करने लायक नहीं समझती क्योंकि मेरे पास कोई कहानी नहीं है। बादाम के सुर्ख होते पत्तों और सूरजमुखी के रंगवाली चिड़िया-और इनके बिना बताए जीवन पर कोई क्या कहानी लिखेगा ?
खैर, मैंने जान लिया है कि वह कहाँ जाती है। वह हमारे मकान के अन्दर की गली को पार करके दाहिने सड़क पर आ जाती है और तीन चार मकानों को पार करके फिर दाहिने एक गली में मुड़ जाती है जो मैं जानता आया हूँ कि एक अन्धी गली है। उस अन्धी गली के सामने से मैं बरसों से प्रायः रोज ही गुजरता रहा हूँ, पर मैंने उस गली पर कभी ध्यान नहीं दिया था। अब सोच रहा हूँ कि अन्धी गली का अर्थ एक ऐसी गली है जिससे आप किसी और गली में नहीं जा सकते, आपको उसी से लौटना होगा। हो सकता है कि उसके बारे में जानने की वजह ही है कि मैं पहली बार अन्धी गली के बारे में इतना सोच रहा हूँ। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि अक्सर हम जिन्दगी में ऐसी अन्धी गलियों में घुसते रहते हैं। कहते हैं कि हर आदमी के अन्दर ही न जाने कितनी कहानियाँ छिपी रहती हैं। क्या पता उसे देखते-देखते मैं भी कोई कहानी ही लिख डालूँ। लेकिन यह अन्धी गलीवाली बात तो बहुत घिसी-पिटी है। इसे लेकर लिखी गई कहानी में क्या नई बात होगी ?
वह किससे मिलने जाती है, मैं यह भी जानना चाहता हूँ। अन्धी गली में घुसते ही वह बहुत हल्की और खुश हो गई-ऐसा मुझे उसे देखकर लगा। उस गली में दोनों तरफ बहुत पुराने-पुराने पेड़ हैं और वह गली गाड़ियों की आवाजाही बहुत कम होने के कारण बहुत शान्त है। मैंने देखा कि वह गली में घुसने के बाद एक दूर चलकर अचानक चौंककर खड़ी हो गई और ऊपर के पेड़ को देखने लगी। उसके साथ मुझे भी रुकना पड़ा और ऊपर देखने से मुझे पेड़ से आती किसी चिड़िया की विचित्र आवाज सुनाई दी, जो अब तक मैंने कभी नहीं सुनी थी। अचानक मुझे एक गिलहरी दिखाई दी, जो पूँछ उठाए यह आवाज कर रही थी। मेरा मन हुआ कि उसे बता दूँ कि यह आवाज गिलहरी की थी, किसी चिड़िया की नहीं। पर तब वह जिस तरह मुस्करा रही थी, उससे मैं समझ गया कि उसे यह बताने की कोई जरूरत नहीं। उस दिन के बाद मैं कई बार इस गली में शाम को घूमने आया हूँ और हर आवाज पर चौंककर मैंने ऊपर देखा है। इसी चक्कर में मैंने एक कठफोड़वा, एक पीली चिड़िया और एक नीली चिड़िया देखी है-बुलबुल, कोयल और तोते मैंने इतने देख लिए हैं कि वे मेरे लिए चील-कौवों की तरह मामूली हो गए हैं और मैं उनका नाम नहीं गिना रहा।
मुझे यदि कोई कहता कि इस भीड़भाड़वाले शहर के इस हल्ले-गुल्ले से भरे इलाके की इस अन्धीगली में इतनी तरह-तरह की चिड़ियाँ दिखती हैं, तो मैं उसे पागल समझता। मेरे एक पुराने दोस्त हैं, जो चिड़ियों पर किताबें पढ़ा करते थे। मैं उन्हें सनकी मानता था। अब सोचता हूँ कि उनसे मिलकर उस पीली चिड़िया का नाम पूँछूँ, जिसका रंग सूरजमुखी के फूल जैसा है और जिसकी बोली अब मैं इतनी अच्छी तरह पहचानने लगा हूँ कि आँख बन्द करके भी बता सकता हूँ कि वह अभी पेड़ पर आई हुई है। कभी-कभी वह मेरे कमरे के पास एक पेड़ पर भी आकर बोलती है। ऐसे मौकों पर मैं चिहुँक पड़ता हूँ और बेतरह चाहता हूँ कि किसी को बताऊँ कि वह कितनी सुन्दर चिड़िया है और आँखें बन्द करके भी उसे पहचान सकता हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि वह भी उस चिड़िया को जानती होगी, पर उसे पूछने के लिए तो उससे बातें करनी होंगी।
मैं बहुत दिन से सोच रहा हूँ कि उससे उसकी कोई कहानी पढ़ने के लिए माँगू लूँ, पर कितनी दिक्कत होती है मुझे किसी नए आदमी से बातें शुरू करने में। और वे भी इस तरह की बातें, जो मैंने आज तक किसी से भी नहीं की है। मैं रिश्तेदारों से और घरवालों से भी बहुत कम बोलता हूँ। फिर भी उनसे बात करना तो जानता हूँ। जिनसे कारोबार है, उनसे भी बातचीत की जा सकती है। पर इस तरह एक लड़की से और वह भी इस तरह की बातों से कैसे बात शुरू की जाए, मुझे समझ में नहीं आता।
कई बार मुझे खीझ सी होती है कि वह खुद ही मुझसे बात क्यों नहीं करती। मैंने देखा है कि वह मकान के दरबान से, लिफ्टमैन से खेलते हुए बच्चों से प्रायः हर परिचित से बातें करती है और जिन्हें नहीं जानती, उन्हें भी बहुत दिलचस्पी से देखती है। मुझे लगता है कि वह जरूर कहानियों की तलाश में है। उसने पहले-पहले तो कई बार मेरी तरफ भी दिलचस्पी से देखा था, पर अब उसकी मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। वैसे इसमें उसकी गलती भी क्या है-मैंने खुद बड़ी-बड़ी मूँछों और चश्मे से अपना चेहरा ढक रखा है। ऊपर से शायद रोब के लिए ही पाइप भी पीता हूँ। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैंने जान बूझकर दुनिया से दूर रहने और दुनिया को दूर रखने के लिए अपने को इस तरह छुपा लिया है। यह भी तो हो सकता है कि मेरे जैसे आदमी इतने ‘‘स्टीरियोटाइप्ड’’ हों कि उसे मुझमें कोई नयापन नजर नहीं आता हो। शायद मेरे जैसा एक चरित्र हिन्दी फिल्मों में बहुत दिखाई देता है। इसलिए उसे मुझमें कोई कहानी नहीं दिखती। सारी जिन्दगी इस बड़े शहर में काटकर अब मुझे लग रहा है कि यदि हम गाँव के लोग होते, तो शायद बातें करना इतना कठिन न होता।
अब मैं अक्सर मेहता जी से खुद चलाकर बातें कर लेता हूँ। पहले-पहले जब वे हमारे मकान में आए थे, तब उनकी मुझसे बतलाने की उत्सुकता से मुझे बहुत कोफ्त होती थी।
मुझे वे निपट गँवार और दूसरों के मामले में दखलन्दाजी करनेवाले हिन्दुस्तानी किस्म के आदमी लगते थे। पार्क में भी सुबह जब वे मुझे मिल जाते, तो मैं इस तरह आँखें जमीन में गड़ाए उनके बगल से निकल जाता था, जैसे कि बहुत गहरे सोच में डूबे होने के कारण मैंने उन्हें देखा ही न हो। मैंने देखा है कि वह मेहता जी से बहुत हँस-हँसकर बातें करती है और एक दिन मेहता जी उसे एक रूमाल में बँधे मौलश्री के फूल दे रहे थे, जो उन्होंने पार्क से बटोरे होंगे। वह बहुत खुश होकर ‘‘थैंक्यू अंकल’’ बार-बार कह रही थी और मेहता जी गद्गद हुए जा रहे थे। मौलश्री के फूल तो मौसम आने तक यूँ ही जमीन पर बिखरे रहते हैं और उनकी खूशबू भी मुझे तो अच्छी नहीं लगती। हो सकता है कि वह कोई कहानी लिख रही हो और इसलिए उसकी मौलश्री में इतनी दिलचस्पी हो। परसों मैंने भी इधर-उधर देखकर कि कोई मुझे देख नहीं रहा है, जमीन से मौलश्री के फूल उठा लिए थे कि पत्नी से पूछूँगा कि उसे इनकी गन्ध कैसी लगती है। पर घर के नजदीक आते-आते मैं इतना परेशान हो गया कि मैंने वे फूल फेंक दिए।
मैं जानता हूँ कि मैं कोई रोमांटिक किस्म का आदमी कहीं से भी नहीं हूँ। मैंने जिन्दगी को बहुत सही ढंग से जीया है और मुझे जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। सबकुछ जैसे होना चाहिए था, वैसा ही है। यहाँ तक कि मैं इतना घबड़ा रहा था कि लड़के को काम सौंपकर खुद रिटायरमैंट ले लिया, तो आखिर वक्त कैसे गुजारूँगा, पर देखिए मुझे तो कोई खालीपन ही नहीं लग रहा। पर थोड़ी सी अजीब सी परेशानी हो रही है। कभी-कभी मुझे लगता है कि पार्क में लगा बादाम का पेड़ मुझसे उन सारे सालों का हिसाब माँग रहा है जब मैं इतना मैं इतना भी नहीं जानता था कि वह बादाम का पेड़ और उसके पत्ते पतझड़ में गिरने से पहले सुर्ख लाल रंग के हो जाते हैं। मैं यह भी चाहता हूँ कि अपने लड़के उस अन्धी गली की चिड़ियों के बारे में और बादाम के लाल पत्तों के बारे में बता दूँ जिससे उसे इतने सालों का घाटा न सहना पड़े। पर मुझे डर है कि वह सोच लेगा कि उसका पिता सठिया गया है। हो सकता है कि वह मुझे डॉक्टर को दिखा लेने की सलाह दे, क्योंकि मैं जानता हूँ कि उसे मैंने अपनी तरह ही बिल्कुल सुलझा हुआ आदमी बनाया है जिसे अच्छी तरह मालूम है कि कौन-कौन सी जानकारियाँ जिन्दगी में भुनाई जा सकती हैं।
उनसे ज्यादा जाननेवालों को शायद वह कमजोर और मूर्ख समझ लेगा। मैं मन-ही-मन कुढ़ता रहता हूँ अपनी पत्नी पर कि वह उस लड़की की तरह हमारे मकान में हर सोमवार को फूल बेचनेवाले से फूल क्यों नहीं खरीदती। पर मुझे याद आ जाता है कि शादी के तुरन्त बाद उसने जूही की माला खरीदकर अपने बालों में लगाने की जिद की थी, तो मैंने उसे यह कहकर रोक दया था कि वह मदरासिन जैसी लगेगी और फूल इतने महँगे हैं और वे तुरन्त मुरझा भी जाते हैं। बस यही सोचकर सन्तोष कर लेता हूँ कि नुकसान की पीड़ा उसे ही कचोटती है, जो उसे नुकसान की तरह जानता है-नहीं तो आप बचे रहते हैं। इसलिए यह दुख मेरा निजी है। इस पर कोई कहानी भी नहीं बन सकती, क्योंकि यह एक सफल व्यक्ति का साधारण सा दुख है। आखिर मेरे पास जिन्दगी से शिकायत की कोई वजह तो नहीं। मेरा दुख मामूली है, जिसे बांग्ला में ‘‘सुखेर कान्ना’’ (रोना) कहते हैं। दुनिया में बड़े-बड़े दुख हैं-उस बच्चे के, जो पार्क के पासवाली चाय की दुकान में अपना बचपन बरतनों के साथ घिस रहा है, उस रिक्शेवाले के जो मेरे पोते को अपनी फूली हुई नाड़ियों से रिक्शे के साथ खींचते हुए रोज स्कूल पहुँचाता है, शायद उस लिफ्टमैन के भी, जो हमारे मकान में घंटों उस काले लोहे के दरवाजे को खोलता बन्द करता रहता है। और मुझे सन्देह है कि इसलिए वह लड़की मुझे बात करने लायक नहीं समझती क्योंकि मेरे पास कोई कहानी नहीं है। बादाम के सुर्ख होते पत्तों और सूरजमुखी के रंगवाली चिड़िया-और इनके बिना बताए जीवन पर कोई क्या कहानी लिखेगा ?
हर शै बदलती है
आज सोमवार है। सप्ताह का पहला दिन। हर महीने के पहले दिन की तरह आज का दिन भी मन में हिम्मत बँधाता है या कहें उत्साह जगाता है कि जिन्दगी को आज से एक नए ढंग से शुरू किया जा सकता है। अब तक जो हुआ, सो हुआ। यह डर तो है कि ऐसे ही और दिनों के संकल्पों की तरह यह भी गुजर जाएगा और कुछ बदलेगा नहीं। पर फिर लगता है कि आज वैसा नहीं होगा। बहरहाल, एक नई उम्मीद से सुबह-सुबह आँखें खोलना कितना अच्छा लगता है।
मन हुआ कि ‘‘कितना अच्छा लगता है’’-न कहकर ‘‘कितना भला’’ कहूँ। ‘‘भला’’ शब्द में कितनी नजदीकी और अपनापन लग रहा है, पर कोई किसी आदमी को भला बताए, तो मैं उस आदमी को और जिसे वह बता रहा है-दोनों को शक की निगाह से देखूँ। इसी तरह ‘‘सरल’’ शब्द को भी मैं बहुत सन्देह के साथ देखती हूँ। क्या करूँ, बचपन से ही जिनको सरल बताया गया, उन्हें मैं तब भी जानती थी कि वे सरल नहीं हैं। मुझे तो सिर्फ वे लोग सरल लगते हैं जो बेचारे दुनिया में मूर्ख समझे जाते हैं। जैसे कि वही मनजीत भाई-हर मीटिंग में लगातार बोलते चले जाते हैं और तब भी जब उनकी कोई बात ही सुनता होता। किसी एक से अगर उनकी आँखें मिल जाएँ और वह इतना बेहया न हो कि साफ जाहिर कर दे कि उसकी मनजीत भाई की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो वे हर मीटिंग के अन्दर अपनी एक अलग मीटिंग बना लेते हैं और इतना बोर कर सकते हैं कि वह आदमी खुदकुशी करने तक की सोचने लगे।
यह खुदकुशी की बात अतिरंजना ही सही, पर आजकल अतिरंजना के बिना कोई किसी बात के साधारण अर्थ तक पहुँच कहाँ पाता है ? अब तो हालत यह हो गई है कि अतिरंजना करने पर भी साधारण अर्थ नहीं निकलता, वह भी अब घिस गई है। पहले कोई कहता था कि कोई फलाँ सभा में दस लाख आदमी थे, तो सुननेवाला सोचता था कि दो लाख तो रहे ही होंगे। पर अब तो वह यह भी सोच सकता है कि सभा हुई भी होगी या नहीं।
वैसे सच पूछो, तो आज का युग अपने को छिपाए रखने का है। यह भी कह सकते हैं कि चुप्पी साधे रहने का है। मैं तो अतिरंजना के लिए तरस जाती हूँ। कोई कहता है-‘‘आपकी कहानी पढ़ी’’-तो मैं जानती हूँ कि या तो वह उसके आगे कुछ नहीं कहेगा या ज्यादा-से-ज्यादा कहेगा-‘‘अच्छी थी।’’ अब तुम्हीं बताओ, यह अच्छी क्या बला है ? क्या और कोई विशेषण किसी के पास बचा नहीं ? मन तो कहता है कह दूँ-यदि ऐसा ही है, तो कम-से-कम बहुत अच्छी’ ही कह दो। पर ऐसा किसी को कहा थोड़े ही जाता है। तुम कहोगे-‘‘तुम तो कह ही सकती हो। तुम्हारी जुबान पर कोई लगाम थोड़े ही है।’’ पर तुम सरल हो न। इसीलिए तुम समझ नहीं पाते कि जुबान पर लगाम सिर्फ उनके लिए नहीं रखी जाती जिनसे बेहद प्रेम या नफरत होती है। बाकी लोगों के लिए जुबान पर लगाम की जरूरत होती ही नहीं।
मैं कल रात उदास रही-उदास नींद में डूबी रही। तुम कहोगे कि ‘‘तुम्हारी आदत पड़ गई शब्दों को घुमाने की।’’ तुम भले ही चिढ़ो, पर मैं सच कहती हूँ कि मैं जब उदास होती हूँ। तो नींद में भी जानती हूँ कि भले ही मैं सो रही हूँ, पर उदास हूँ। तुम मानो या न मानो, पर इस उदासी जैसी तो कोई उदासी होती ही नहीं। यह लगातार दोनों हाथों से तुम्हारा गला दबाती रहती है, पर तुम चाहकर भी उसके हाथ अपने गले से हटा नहीं पाते, क्योंकि तुम्हारे शरीर को तुम्हारे प्राणों ने लकवा मारा होता है। तुम चाहोगे कि हाथ उठे, पर उठेगा नहीं। तुम चाहोगे कि चीखो और किसी को बुला लो, पर तुम्हारे गले से आवाज निकलेगी नहीं। मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है कि तुम्हें कभी यह भयंकर अनुभव हुआ भी नहीं होगा। तुम सरल जो हो, देखो, मुझे डर है कि तुम बार-बार सरल कहने को एक गाली समझ लोगे, पर मैं सारी घाघ दुनिया को जानने और समझने के कारण तुम्हारी सरलता को चाहती हूँ और हालाँकि वह मुझे कम तकलीफ नहीं देती, पर फिर भी चाहती हूँ कि वह बनी रहे।
मन हुआ कि ‘‘कितना अच्छा लगता है’’-न कहकर ‘‘कितना भला’’ कहूँ। ‘‘भला’’ शब्द में कितनी नजदीकी और अपनापन लग रहा है, पर कोई किसी आदमी को भला बताए, तो मैं उस आदमी को और जिसे वह बता रहा है-दोनों को शक की निगाह से देखूँ। इसी तरह ‘‘सरल’’ शब्द को भी मैं बहुत सन्देह के साथ देखती हूँ। क्या करूँ, बचपन से ही जिनको सरल बताया गया, उन्हें मैं तब भी जानती थी कि वे सरल नहीं हैं। मुझे तो सिर्फ वे लोग सरल लगते हैं जो बेचारे दुनिया में मूर्ख समझे जाते हैं। जैसे कि वही मनजीत भाई-हर मीटिंग में लगातार बोलते चले जाते हैं और तब भी जब उनकी कोई बात ही सुनता होता। किसी एक से अगर उनकी आँखें मिल जाएँ और वह इतना बेहया न हो कि साफ जाहिर कर दे कि उसकी मनजीत भाई की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो वे हर मीटिंग के अन्दर अपनी एक अलग मीटिंग बना लेते हैं और इतना बोर कर सकते हैं कि वह आदमी खुदकुशी करने तक की सोचने लगे।
यह खुदकुशी की बात अतिरंजना ही सही, पर आजकल अतिरंजना के बिना कोई किसी बात के साधारण अर्थ तक पहुँच कहाँ पाता है ? अब तो हालत यह हो गई है कि अतिरंजना करने पर भी साधारण अर्थ नहीं निकलता, वह भी अब घिस गई है। पहले कोई कहता था कि कोई फलाँ सभा में दस लाख आदमी थे, तो सुननेवाला सोचता था कि दो लाख तो रहे ही होंगे। पर अब तो वह यह भी सोच सकता है कि सभा हुई भी होगी या नहीं।
वैसे सच पूछो, तो आज का युग अपने को छिपाए रखने का है। यह भी कह सकते हैं कि चुप्पी साधे रहने का है। मैं तो अतिरंजना के लिए तरस जाती हूँ। कोई कहता है-‘‘आपकी कहानी पढ़ी’’-तो मैं जानती हूँ कि या तो वह उसके आगे कुछ नहीं कहेगा या ज्यादा-से-ज्यादा कहेगा-‘‘अच्छी थी।’’ अब तुम्हीं बताओ, यह अच्छी क्या बला है ? क्या और कोई विशेषण किसी के पास बचा नहीं ? मन तो कहता है कह दूँ-यदि ऐसा ही है, तो कम-से-कम बहुत अच्छी’ ही कह दो। पर ऐसा किसी को कहा थोड़े ही जाता है। तुम कहोगे-‘‘तुम तो कह ही सकती हो। तुम्हारी जुबान पर कोई लगाम थोड़े ही है।’’ पर तुम सरल हो न। इसीलिए तुम समझ नहीं पाते कि जुबान पर लगाम सिर्फ उनके लिए नहीं रखी जाती जिनसे बेहद प्रेम या नफरत होती है। बाकी लोगों के लिए जुबान पर लगाम की जरूरत होती ही नहीं।
मैं कल रात उदास रही-उदास नींद में डूबी रही। तुम कहोगे कि ‘‘तुम्हारी आदत पड़ गई शब्दों को घुमाने की।’’ तुम भले ही चिढ़ो, पर मैं सच कहती हूँ कि मैं जब उदास होती हूँ। तो नींद में भी जानती हूँ कि भले ही मैं सो रही हूँ, पर उदास हूँ। तुम मानो या न मानो, पर इस उदासी जैसी तो कोई उदासी होती ही नहीं। यह लगातार दोनों हाथों से तुम्हारा गला दबाती रहती है, पर तुम चाहकर भी उसके हाथ अपने गले से हटा नहीं पाते, क्योंकि तुम्हारे शरीर को तुम्हारे प्राणों ने लकवा मारा होता है। तुम चाहोगे कि हाथ उठे, पर उठेगा नहीं। तुम चाहोगे कि चीखो और किसी को बुला लो, पर तुम्हारे गले से आवाज निकलेगी नहीं। मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है कि तुम्हें कभी यह भयंकर अनुभव हुआ भी नहीं होगा। तुम सरल जो हो, देखो, मुझे डर है कि तुम बार-बार सरल कहने को एक गाली समझ लोगे, पर मैं सारी घाघ दुनिया को जानने और समझने के कारण तुम्हारी सरलता को चाहती हूँ और हालाँकि वह मुझे कम तकलीफ नहीं देती, पर फिर भी चाहती हूँ कि वह बनी रहे।
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